praytna roopi kacche dhaage ki rassi se jeevan roopi nav ko kheeenchne ka prayas kar rahi hai.Na jaane kab meri aawaz sunenge ishwar.Kab is sansar roopi sagar ko par karayenge.Mere saare prayas vyarth hi jaa rahe hai.Yahi aawaz mann mein reh reh kar uthti hai.Meri iswar ke dwar jaane ki chah hai.
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वाख 1.
रस्सी कच्चे धागे की , खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार , करें देव भवसागर पार।
भावार्थ –
उपरोक्त काव्य खंड में कवयित्री ने अपनी जिंदगी की तुलना नाव से और अपनी श्वासों (सांस) की तुलना कच्ची डोरी से की है। कवयित्री कहती है कि मैं अपनी जिंदगी रूपी नाव को अपनी श्वासों रूपी कच्ची डोरी से खींच रही हूं। यानि जैसे-तैसे अपनी जिंदगी गुजार रही हूँ। आगे कवयित्री कहती हैं कि पता नहीं कब प्रभु उनकी करुण पुकार सुनकर , उन्हें इस संसार के जन्म मरण रूपी भवसागर से पार उतारेंगे।
पानी टपके कच्चे सकोरे , व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक , घर जाने की चाह है घेरे।।
भावार्थ –
यहाँ पर कवयित्री ने अपने शरीर की तुलना कच्ची मिट्टी के घड़े या बर्तन से की है जिसमें से लगातार पानी टपक रहा है। कवयित्री के कहने का तात्पर्य यह हैं कि हर बीतते दिन के साथ उनकी उम्र कम होती जा रही है। और प्रभु से मिलने के उनके सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं।
कवयित्री आगे कहती है कि उनका दिल बार-बार प्रभु मिलन को तड़प उठता हैं और अब उनके अंदर सिर्फ अपने घर जाने यानि उस परमात्मा में विलीन होने की व्याकुलता बढ़ती ही जा रही है।
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वाख 2.
खा खा कर कुछ पाएगा नहीं ,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
भावार्थ –
इस काव्य खंड में कवयित्री ने जीवन में संतुलन बनाकर चलने की अहमियत को समझाया है। और जीवन में मध्यम मार्ग को अपनाने की बात कही हैं। कवयित्री कहती हैं कि मनुष्य को बहुत अधिक सांसारिक वस्तुओं व भोग-विलासिता में लिप्त नहीं रहना चाहिए। इससे भी कुछ हासिल नहीं होगा। बल्कि इससे वह प्रतिदिन आत्मकेंद्रित बनता चला जाएगा। और एकदम सब कुछ त्याग कर बैराग्य धारण करने से भी कुछ हासिल नहीं होगा। इससे भी व्यक्ति अहंकारी बन जाएगा।
सम खा तभी होगा समभावी ,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।
भावार्थ –
आगे कवयित्री कहती हैं कि इसीलिए जीवन में संतुलन बनाकर चलना जरूरी है। न बहुत ज्यादा सांसारिक चीजों में लिप्तता और ना ही एकदम बैराग्य की भावना रखनी चाहिए।बल्कि दोनों को बराबर यानि संतुलित मात्रा में अपने जीवन में जगह देनी चाहिए। जिससे समानता की भावना मन में उत्पन्न होगी।
और हृदय में दूसरों के लिये प्रेम , दया , करुणा , उदारता की भावना जन्म लेगी। मन की दुविधा दूर होंगी। और फिर हम सभी लोगों को खुले मन से अपने जीवन में अपना पाएंगे या अपने हृदय के द्वार सभी लोगों के लिए समान भाव से खोल पाएंगे।
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वाख 3.
आई सीधी राह से , गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी , बीत गया दिन आह !
भावार्थ –
इस काव्य खंड में कवयित्री अपने किये कर्मों पर पश्चाताप कर रही हैं। वो कहती हैं कि जब वो इस दुनिया में आई थी यानी जब उन्होंने जन्म लिया था , तब उनका मन एकदम पवित्र व निर्मल था। उनके मन में किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना नहीं थी। लेकिन अब जब जाने का समय आया है तो उनका मन छल-कपट , भेदभाव और सांसारिक माया मोह के बंधनों से भरा पड़ा है
और उन्होंने परमात्मा को पाने का या उनसे मिलने का सीधा रास्ता यानी भक्ति के मार्ग को चुनने के बजाय हठयोग मार्ग को चुना। और अपने और परमात्मा के बीच सेतु बनाने के लिए कुंडली योग को जागृत करने का सहारा लिया। परंतु वे अपने इस प्रयास में भी असफल हो गई।
ज़ेब टटोली कौड़ी ना पाई।
माझी को दूँ , क्या उतराई ?
भावार्थ –
आगे कवयित्री कहती हैं कि अब जब वह अपनी जिंदगी का हिसाब-किताब करने बैठी हैं तो उन्हें अपनी झोली खाली नजर आ रही हैं। तब उन्हें लगता हैं कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में पुण्य कर्म या अच्छे कर्म तो किये ही नहीं और अब उनके पास पुण्य कर्म करने का समय भी खत्म हो चुका है और परमात्मा से मिलने का समय बहुत पास चुका है।
कवयित्री आगे कहती हैं कि जब परमात्मा मुझे जन्म मरण के इस भवसागर से पार उतारेंगे तो वो उनको उतराई (मेहनताने) के रूप में भेंट स्वरूप क्या देंगी।
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वाख 4.
थल थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां।
भावार्थ –
इस काव्य खंड में कवयित्री कहती हैं कि ईश्वर कण-कण में बसता है। वह सबके हृदय में मौजूद है। इसीलिए हमें हिंदू और मुसलमान का भेदभाव अपने मन में नहीं रखना चाहिए।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान ,
यही है साहिब से पहचान।।
भावार्थ –
कवयित्री आगे कहती हैं कि अगर तुम सच में ज्ञानी हो , तो सबसे पहले अपने अंदर झांक कर देखो , अपने आपको पहचानो , अपने मन को पवित्र व निर्मल करो , क्योंकि ईश्वर से मिलने का यही एकमात्र रास्ता है।
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