vir ras ki ek kavita

हे सारथे! हैं द्रोण क्या, देवेंद्र भी आकर अड़े,
है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह-भेदन कर लड़े ।
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे ॥


चक्रव्युह भेदते समय अभिमन्यु कि येह गर्वोक्ति वीर रस से पूर्ण हैं ।
स्थायी भाव : उत्साह
आलंबन : शत्रु
उद्दीपन : चक्रव्युह रचना
अनुभाव : अभिमन्यु के वचन
संचारी भाव : रोमांच, उत्सुकता, उग्रता, चुनौती





  • 3
What are you looking for?