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अलंकार का अर्थ होता है 'आभूषण'। जिस प्रकार एक स्त्री आभूषणों से स्वयं को सजाती है व आभूषणों के प्रयोग से उसका सौदंर्य निखर जाता है, उसी प्रकार काव्य में अलंकारों के प्रयोग से काव्य का सौदंर्य बढ़ जाता है। काव्य में अलंकारों के प्रयोग से चमत्कार उत्पन्न होता है। हिन्दी व्याकरण में अलंकारों के इसी गुण के कारण उनका विशिष्ट स्थान है और इनका महत्व भी इसी गुण के कारण बढ़ जाता है। यदि अलंकार नहीं होते तो कल्पना करो काव्य, काव्य न लगकर मात्र नीरस पंक्तियाँ बनकर रह जाता। अलंकारों के प्रयोग ने काव्य को एक तरफ सुंदर बनाया है, तो दूसरी और उसे चमत्कार के गुण से परिपूर्ण किया है।

जैसे चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही है जल थल में अलंकारों के मुख्यत: दो भेद माने जाते हैं - (I) शब्दालंकार, (II) अर्थालंकार।

(I) शब्दालंकार के तीन भेद माने जाते हैं-

(क) अनुप्रास अलंकार- अनुप्रास अंलकार में एक वर्ण एक से अधिक बार आए आता है- रघुपति राघव राजा राम

(ख) श्लेष अलंकार- श्लेष अंलकार में एक ही शब्द में दो या उससे अधिक अर्थ निकलते (चिपके हो) हो वहाँ श्लेष अंलकार होता है

(ग) यमक अलंकार- यमक अलंकार में एक शब्द दो बार आए परन्तु हर बार उसका अर्थ अलग-अलग होता है।

(II) अर्थालंकार अलंकार छ: भेद माने जाते हैं –

(क) उपमा- उपमा अलंकार में किसी बहुत प्रसिद्ध वस्तु की तुलना किसी अन्य व्यक्ति के रूप, गुण से की जाती है

(ख) रुपक- रुपक में रूप और गुण में बहुत अधिक समानता के कारण उपमेय में उपमान का आरोप करके अभेद स्थापित किया जाता है

(ग) उत्प्रेक्षा- उत्प्रेक्षा में रूप-गुण की बहुत अधिक समानता के कारण उपमेय में उपमान की कल्पना की जाती है

(घ) अतिश्योक्ति- अतिश्योक्ति अलंकार में बढ़-चढ़कर किसी की तारीफ की जाती है। तारीफ करने वाला व्यक्ति इतनी तारीफ कर देता है कि वह लोक कल्पना की सारी सीमाएं पार कर जाता है।

(ड़) अन्योक्ति- अन्योक्ति अलंकार में अप्रस्तुत प्रशंसा की जाती है।

(च) मानवीकरण- इस अंलकार में प्रकृति को मनुष्य के समान कार्य करते हुए दर्शाता है।

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