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रस

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रस
काव्य के अंदर अलंकार और छंद का जैसा महत्त्व होता है, वैसे ही रस का भी है। ये दोनों ही काव्य के आवश्यक अंग हैं। इनके बिना काव्य का आंनद नहीं उठाया जा सकता है। काव्य में रस महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रस को विस्तारपूर्वक समझने से पूर्व हमें 'रस' शब्द के अर्थ को समझना पड़ेगा। यदि रस के अर्थ पर दृष्टि डालें, तो रस के विभिन्न अर्थ निकलते हैं; जैसे- द्रव (फलों का रस), आनंद तथा निचोड़। जैसे प्रत्येक फल के रस का स्वाद एक-सा नहीं होता है, वैसे ही रस के विभिन्न भेदों से मिलने वाला आनंद एक-सा नहीं होता। इसे अच्छी तरह से समझने के लिए हमें रस का गहराई से अध्ययन करना पड़ेगा। किसी काव्य को पढ़ते या सुनते समय मन में जो आनंद का अनुभव होता है, उसे ही रस कहते हैं। ये दिखाई नहीं देते इसलिए ये लौकिक नहीं है। बल्कि ह्दय में उमड़ते हैं और इनसे हमें आनंद की अनुभूति होती है। यही कारण है इनसे प्राप्त आनंद को अलौकिक कहा जाता है। उदाहरण के लिए हम कोई नाटक देख रहे हैं। उस नाटक में किसी की मृत्यु का दृश्य दिखाया जा रहा है। हमारे मन के अंदर उस दृश्य को देखकर करूणा का भाव जागृत हो जाता है। हम रोने लगते हैं। हमारे ह्दय में उस नाटक को देखकर जो करूणा का भाव जागृत हुआ, वही आनंद है और हमें इसे ही रस कहते हैं। रस के चार भाग माने जाते हैं, वे इस प्रकार हैं- स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव।
(क) स्थायी भाव- स्थायी भाव वे भाव हैं, जो हमारे मन में पहले से ही होते हैं। इन्हें कोई दबा न…

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